उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पू.)
उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पू.)
उत्तर वैदिक काल के दौरान (1000-600 ईसा पूर्व) आर्यों का यमुना, गंगा और सदनीरा जैसे सिंचिंत उपजाऊ मैदानों पर पूर्ण नियंत्रण था।
घटनाक्रम
1500 ईसा पूर्व और 600 ईसा पूर्व की अवधि प्रारंभिक वैदिक काल (वैदिक काल) और उत्तर वैदिक काल के रूप में विभाजित थी।वैदिक काल: 1500 ईसा पूर्व- 1000 ईसा पूर्व: इस अवधि के दौरान ही आर्य भारत पर आक्रमण करने वाले थे।उत्तर वैदिक काल: 1000 ईसा पूर्व- 600 ईसा पूर्व
विशेषताएं
उत्तर वैदिक रचनाएं
यह अवधि वेद के बाद संकलित वैदिक ग्रंथों पर आधारित थी।वैदिक भजन या मंत्रों के संग्रह को संहिता कहा जाता था।भजन गाये जाने के बाद वेदों को धुनों पर स्थापित किया गया था और इसके बाद इन्हें साम वेद संहिता नामित किया गया था।इस अवधि के दौरान दो और वेदों के संग्रहों, यजुरवेद वेद संहिता और अथर्ववेद संहिता की भी रचना हुई थी।यजुर वेद में भजन अनुष्ठान के साथ होते थे जो समाज के सामाजिक-राजनीतिक संरचना को दर्शाते थे।अथर्ववेद में आकर्षण और मंत्र होते थे जो विपदा से रक्षा करते थे। ये गैर-आर्यों के विश्वासों और प्रथाओं को प्रतिबिंबित करते थे।संहिताओं के बाद ग्रंथों की एक श्रृखंला आयी थी जिसे ब्राह्मण कहा जाता था जिन्होंने अनुष्ठानों के सामाजिक और धार्मिक पहलुओं के बारे में विस्तृत जानकारी दी थी।
II- भूरे रंगीन बर्तन
ऊपरी गंगा बेसिन के उत्खनन ने मिट्टी के कटोरों और भूरी मिट्टी से चित्रित बर्तनों की खोज को सुनिश्चित किया ।ये उत्पाद एक ही क्षेत्र और एक ही अवधि (1000-600 ईसा पूर्व लगभग), उत्तर वैदिक संकलन का हिस्सा थे।इस प्रकार, इन स्थानों को पेंटेट ग्रे वेयर (पीजीडब्ल्यू) स्थान कहा जाने लगा था।ये स्थान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के आसपास के क्षेत्रों में पाये जा सकते हैं।
III. लौह चरण संस्कृति
1000 ईसा पूर्व के आसपास पाकिस्तान और बलूचिस्तान में मिट्टी के अंदर बहुत लौह भण्डार पाया गया था।800 ईसा पूर्व के आस-पास उत्तर प्रदेश में लोहे का उपयोग तीर-कमान और बरछी- भाला जैसे हथियार बनाने के लिए किया जाता था।उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे के लिए 'श्यामा' या 'कृष्णा अयास' शब्दों का प्रयोग किया जाता था।हालांकि कृषि साधारण होती थी लेकिन यह व्यापक होती थी और उत्तर वैदिक काल में चावल और गेहूं की व्यापकता में वृद्धि हुई थी।धातुओं की विविध कला और शिल्प के प्रस्तुतीकरण में वृद्धि हुई। धातु गलाने वाले(स्मेल्टर), लोहे और तांबे के कारीगर तथा बढ़ई जैसे व्यवसाय अस्तित्व में आये थे।उत्तर वैदिक काल में चार प्रकार के मिट्टी के बर्तन होते थे (काले और लाल-बर्तन, काले-स्खलित बर्तन, चित्रित भूरे बर्तन, और लाल बर्तन)।
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