1892 ई. का अधिनियम

1892 ई. का अधिनियम

ब्रिटेन की संसद द्वारा 1892 ई. में पारित किये गए अधिनियम ने विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि कर उन्हें सशक्त बनाया, जिसने भारत में संसदीय प्रणाली की आधारशिला रखी| इस अधिनियम से पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1885 ई. से लेकर 1889 ई. तक के अपने अधिवेशनों में कुछ मांगे प्रस्तुत कर चुकी थी जिनमें से प्रमुख मांगे निम्नलिखित थीं-

• आईसीएस परीक्षा भारत और इंग्लैंड दोनों जगह आयोजित की जाये|

• परिषदों में सुधर किये जाएँ और नामनिर्देशन के स्थान पर निर्वाचन प्रणाली को अपनाया जाये|

• ऊपरी वर्मा का विलय न किया जाये|

• सैन्य व्यय में कटौती की जाये|

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की इन मांगों ने इस अधिनियम के निर्माण की भूमिका तैयार कर दी|

अधिनियम के प्रावधान

• केंद्रीय और प्रांतीय दोनों विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी|

• विश्वविद्यालयों ,ज़मींदारों,नगरपालिकाओं आदि को प्रांतीय परिषद् के सदस्यों को अनुमोदित करने के लिए अधिकृत कर दिया गया| इस प्रावधान द्वारा प्रतिनिधित्व के सिद्धांत  को प्रारंभ किया गया|

• इस अधिनियम द्वारा परिषद् के सदस्यों को वार्षिक वित्तीय विवरण अर्थात बजट पर बहस करने का अधिकार प्रदान किया गया|

• गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद् में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 16 तक कर दी गयी|

• इस अधिनियम के अनुसार परिषद् के 2/5 सदस्य गैर-सरकारी हो सकते थे|

• इस अधिनियम ने परिषदों के अतिरिक्त सदस्यों को जनहित के मुद्दों पर प्रश्न पूछने का अधिकार प्रदान किया|

• प्रांतीय परिषदों में भी अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी,जैसे-बंगाल में इनकी संख्या 20 और अवध में 15 कर दी गयी|

निष्कर्ष

1892 ई. में पारित किये गए अधिनियम ने भारत में संसदीय प्रणाली की आधारशिला रखी और भारत के संवैधानिक विकास में मील का पत्थर साबित हुआ| इस अधिनियम द्वारा भारत में पहली बार चुनाव प्रणाली की शुरुआत की गयी| इन सबके बावजूद यह अधिनियम राष्ट्रीय मांगों की पूर्ति करने में सफल नहीं हो पाया और न ही कोई महत्वपूर्ण योगदान दे सका|

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